मूक (Mute)

यह कहानी कहें तो हिंदुस्तान के हर चौथे घर की है, खास कर गाँवों में यह अधिक मात्रा में देखी जा सकती है।
यह कहानी एक जमींदार परिवार से शुरू होती है, जिनके पूर्वज कभी राजा-रजवाड़े हुआ करते थे। इस महल में महिलाओं की अहमियत एक मूर्ति के समान है, अर्थात् जिस प्रकार हम मूर्ति के पास हमेशा कुछ माँगने के उद्देश्य से ही जाते हैं, कुछ उन्हें दे तो सकते नहीं या फिर समझ लेते हैं कि इन्हें प्रसाद और माला से अधिक कुछ चाहिए ही नहीं। पर ऐसा नहीं है, यह तो हम से कुछ और ही अपेक्षा रखते हैं, रहने भी दें भला ये लोग ये सारी चीज़ कहाँ समझने वाले हैं। क्योंकि इन्हें तो सुख इन्हीं चीज़ों से मिलती है। जिस प्रकार मूर्ति को सुबह-शाम प्रसाद चढ़ाया जाता है, उसी प्रकार इनके थाल में भी तीन वक़्त की रोटियाँ डाल दी जाती है। पर ये क्या, युवा महिलाएँ इसमें से भी सुबह का नाश्ता तो करती ही नहीं, ताकि कहीं मोटी ना हो जाएँ, फिर मोटे लोग तो भद्दे होते हैं। ख़ुद को सुन्दर बनाए रखना तो कोई इन से सीखे, इन्हें अपने भोले-भाले पति का ध्यान जो अपनी ओर आकर्षित किए रहना है। उनकी नज़रें कहीं और फिरीं तो इसका ठीकरा भी इन्हीं के सर फूटना है। वैसे भी यदि घर के पकवान सड़े न हों तो भला भोले-भाले मर्द को कोई शौक़ थोड़े ही है बाहर की खिचड़ी खाने की। और कुँवारी लड़कियाँ पति की लालसा में ऐसा करती हैं, यदि थोड़ी मोटी हो गईं तो अनर्थ ही हो जाए, सदा पिता की ही दहलीज पर बैठना पड़ जाए। भला कौन कुमार सुन्दर पत्नी नहीं चाहता, रस्सी टूट भी जाए पर बल तो बाक़ी ही रहता है। ज़मींदारी तो लगभग चली गई पर इनकी आन-बान नहीं गई, किसी सामान्य लड़के को अपनी राजकुमारी का हाथ कैसे दे सकते हैं, चाहे कुमारी सदा कुँवारी ही क्यों न रह जाए।
सच पूछें तो इन्हें भी अब अपने महत्व का अंदाज़ा हो ही गया है। जिस प्रकार फूल के सूख जाने पर उसे गुलदान से निकाल दिया जाता है, इनकी भी हालत ज़्यादा अलग नहीं है। यहाँ मूर्ति और महिलाओं में एक और समानता है, दोनों कुछ नहीं बोलते। एक बोल नहीं सकते दूसरे को अधिकार नही है। खुद घर की बातें भी दूसरों से मालूम होती है। इन से सलाह तो नहीं लेते पर काम बिगड़ने पर कोसते ज़रूर हैं।
हद तो तब हो गयी जब कुमार चन्द्रदेव सिंह की नई-नई शादी हुई थी। नई-नवेली दुल्हन को भला यहाँ के रीति-रिवाज़ की इतनी समझ कहाँ थी और वो ठहरी बेचारी शहर की लड़की, माँ-बाप की दुलारी, अपनी शर्तों पर जीने वाली, यहाँ शादी करके तो बेचारी बुरी फँसी थी, क्योंकि यहाँ तो कुछ भी उसके जैसा न था। तब पलकों पर पालने वाले पिता ने भी कह दिया कि प्रीति हमारे लिए मर चुकी है, जब उन्हें पता चला कि प्रीति ने घर से भाग कर उनकी मर्ज़ी के बिना प्रेम-विवाह किया है। और वह भी क्यों नहीं करती, कौन सा इनके माता पिता डोली में बिठा कर इसको चन्द्रदेव सिंह के साथ रुख़सत कर देते। इस शादी से समाज में उनकी बहुत किरकिरी हुई, गुस्से में आकर उन्होंने प्रीति से कभी न मिलने का कसम खा लिया।
न ही एक पिता के लिये अपनी इकलौती सन्तान को भुला देना इतना आसान था और न ही एक स्वाभीमानी पुरूष के लिए समाज में सर झुका कर जीना। पत्नी के गुजर जाने के बाद बेटी ही उनकी ज़िंदगी थी और ज़िंदगी के बिना जान भी कब तक साथ देती। इस सदमे का इलाज वो शराब में ढूंढने लगे। और ये तो हमेशा होता ही आया है, पहले हम शराब को पीते हैं फिर शराब हमें पीने लगती है। कभी न कभी तो यह दिन आना ही था, एक दिन कुछ कूड़ा चुनने वाले को उनकी लाश रेलवे लाइन पर दिखी। फिर धीरे-धीरे कुछ लोग इकट्ठा हुए, सत्येन्द्र शर्मा शहर के प्रतिष्ठित व्यक्ति थे, पुलिस को उनकी लाश पहचानने में ज़्यादा समय नहीं लगा। यह एक रहस्य ही बना रह गया कि यह मौत आत्महत्या थी या शराब के नशे में हुई दुर्घटना या फिर कुछ और ही। पुलिस जल्द ही लाश के साथ उनके घर पर थी जिस पर ताला लगा था। कोई पड़ोस वाला भी इसे अपनाने को तैयार न हुआ बड़ी मुश्किल से प्रीति के ससुराल का टेलीफ़ोन नम्बर पुलिस के हाथ लगा, जब वहाँ कॉल किया तो वहां से मिले जवाब ने पुलिस को अंतिम संस्कार खुद ही करने पर मजबूर कर दिया। उधर से प्रीति के ससुर ने कहा की यहाँ सूर्यदेव सिंह की बहू रहती है किसी सत्येन्द्र शर्मा की बेटी नहीं। क्योंकि कोई मरा हुआ व्यक्ति किसी घर में नहीं रहता और सत्येन्द्र शर्मा ने तो अपनी बेटी को स्वंय ही मारा है। और यह ख़बर भी प्रीति को दो दिन बाद मिली तब आँसू की नदी बहाने के अलावा उसके पास और कोई चारा भी न था। एक तो पहले ही इस ब्याह से ससुराल वाले नाराज़ थे कि उन्हें कोई दान-दहेज़ नहीं मिले थे इसके बाद उनको उस पर ज़ुल्म ढ़ाने का और भी मौक़ा मिल गया।
एक दिन चन्द्रदेव सिंह को नदी में तैरने का शौक चढ़ा तब पत्नी ने आग्रह किया कि मेरा जी घबरा रहा है, आज नदी न जाएँ तो बेहतर होगा और यदि जाना ही हो तो किसी को साथ ले लें। इतना सुनना था कि श्रीमान को लगा की उनकी पत्नी उनकी योग्यता पर संदेह कर रही है, तब मारे तपाक में उन्होंने कसम खा लिया कि आज चाहे धरातल भी पलट जाए आज तो नदी तैर कर पार किए बिना नहीं लौटेंगे। और विधि का विधान देखिये जैसे ही तैर कर थोड़ी दूर निकले ही थे कि तूफ़ान आ गया, तब भी कुमार साहब अपनी कसम तोड़ने वाले कहाँ थे, बढते ही रहे। बीच नदी पहुँचते-पहुँचते तूफान ने भयावह रूप ले लिया नदी की लहरें अनियंत्रित होने लगीं, उससे उठी भँवर ने तो इसे मौत की घाटी में रूपांतरित कर दिया। कुछ देर बाद घर पर ख़बर गई कि छोटे कुमार साहब अब नहीं रहे। यह ख़बर सुनते ही महल में मातम छा गया, शव के घर आने से पहले ही उसकी विधवा को अर्धनग्णावस्था में धक्के मार कर घर से बाहर करते देखा गया। कुछ लोग अब भी उसे तरह-तरह की गालियाँ दे रहे थे, अभागण, काली ज़ुबान, मनहूस, चूड़ैल, डायन न जाने और भी क्या-क्या कह रहे थे।
इस मौत के बाद सब यह विश्वास कर रहे थे कि उनकी बहू अवश्य ही शापित थी और वही इस मौत की ज़िम्मेदार भी थी, अब तो यह घर भी शापित हो चुका है। इसके बाद महल में न जाने कितने पंडित और ओझा आए और फिर किसी ने भी इस भय को बढाने में कोई क़सर न छोड़ी। ज्यों-ज्यों यह ख़बर फैलती गई, महल में आने वाले पंडित ओझाओं की संख्या बढ़ती गई, ये सिलसिला कई महीनों तक चला। इस बीच विरले ही कोई दिन गुज़रे जब महल में कर्मकाँड, हवन या फिर तंत्र-मंत्र न हुआ हो। इस मौत को सहन कर पाना किसी के लिये भी इतना आसान न था, जवान बेटे की मौत भला कौन माँ-बाप के लिये सहनीय है। धीरे-धीरे समय बीतता गया और वे सदमें से कमज़ोर होते गये, बहुत जल्द ही पहले पत्नी फिर स्वंय सूर्यदेव सिंह भी नहीं रहे। इस महल के भीतर एक वर्ष के अन्दर होने वाली तीसरी मौत ने तो महल शापित होने के संदेह को तो मानो वास्तविकता में रूपांतरित कर दिया था। अब तो महल के भीतर एक मंदिर भी बन गई उसमें एक मुख्य पंडित और तीन पुजारी और उनके रहने को कुछ कोठरियाँ। अब मंदिर में प्रत्येक सुबह श्राप से मुक्त रहने को एक अलग प्रकार की पूजा की जाती है, और इसमें परिवार के सभी सदस्यों का सम्मिलित होना मानो सांस लेने के बाद सबसे महत्वपूर्ण है।
इस घटना को आज 30 वर्ष बीत चुके हैं, प्रीति ज़िन्दा भी है या नहीं, किसी ने जानने का प्रयास करना तक उचित नहीं समझा। आज भी यह घटना सब बच्चे-बूढे को इस तरह याद है जैसे कि कल ही हुआ हो। ये उस महल की महिलाओं के लिये एक उदाहरण बना हुआ है कि बोलने वाली महिला का यहाँ क्या हाल होता है।
लेखक: इनाम ज़मील

wow ! nowhere less than a matured story writer !
best wishes !
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Thank you so much once again, it was my 2nd story ever and now I think I will try writing more story, otherwise I do poetries only.
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u have beautifully pointed out social stigma and some orthodox nature of society !
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Thank you so much, Raj bhai :), it was just a small attempt, these kinds of words really encourages us to write more
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Samaj ko aaina dikhati yeh kahani…
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Bahut bahut shukriya Pathak ji, ye bas ek chhoti si koshish hai meri
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Kahaniyan jo samaj Ko aaina dikhaye….bahut jaruri hai..
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Bahut bahut shukriya Anjal bhai :), bas ek chhoti si koshish hai
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