यथार्थ

ज़िन्दगी कभी सुबह, कभी शाम दिखाती है
वजूद की जद्दोजेहद सरेआम दिखाती है।
कहीं कूड़े के ढेर पर भी पलती है ज़िन्दगी
कहीं मटन, कबाब और महंगे जाम दिखाती है।।
ख़ुदा क्या कहूँ तुम्हारी इस बदइन्तजामी को
तुम्हारा एक बंदा तरसे दूजे की मेहेरबानी को।
कहीं कुत्ते भी पालते हैं वातानुकूलित महलों में
और इंसानी बच्चों को सिर पे आसमान दिखाती है।।
कुछ और क्या ख़बर जिसे दो जून निवाला न हो
एक पल यूँ न बीते जब पीटता दिवाला न हो।
मुकद्दर का सितम की आंते सुटक गयी
राजनीति उसे अल्लाह और राम दिखाती है।।
शायद आज फिर कोई,
चमत्कार हो जाये।
दोज़ख दूर और
हर सपना साकार हो जाये।।
शाम को हो पेट में अनाज,
और सोने की जगह हो।
हर सुबह की शुरुआत,
यह अरमान दिखाती है।।
ज़िन्दगी कभी सुबह,
कभी शाम दिखाती है।।
लेखिका: प्रिया पल्लवी पांडेय


Nice..it’s practical…!
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Yes, it is the bare truth of life. Thank you so much.
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Bhot accha el
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*Bhot accha
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Thank you, Akash.
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Thoughtful…. keep going
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अदभुत विचार।
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Very good…..keep it up
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